आसमाँ है ज़मीन है लेकिन, हर फ़कीरों का घर नहीं होता...!

 घर कोई भूगोल नहीं होता।

वह एक आदत है जहाँ मन को प्रश्न पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और जब यह आदत छिन जाती है, तब आदमी वहीं रहता है जहाँ वह है, पर उसका होना किसी और जगह अटक जाता है।

हिंदी सिनेमा के कुछ पात्र ऐसे ही अटके हुए लोग हैं। वे सड़क पर नहीं रहते, फिर भी उनका पता नहीं मिलता। वे परिवारों के बीच दिखाई देते हैं, पर गिने नहीं जाते। उनका बेघरपन किसी दुर्घटना से नहीं, एक लम्बी उपेक्षा से जन्म लेता है इतनी लम्बी कि वह स्वभाव बन जाती है।

जनार्दन जाखड़ (रॉकस्टार) को जब घर से बाहर किया जाता है, तब वह बाहर नहीं जाता वह पहले ही निकल चुका होता है। बाहर फेंका जाना केवल एक औपचारिक पुष्टि है। असल में वह उस दिन बेघर हुआ था जिस दिन घर ने उसके भीतर उठती बेचैनी को अनावश्यक समझ लिया। संगीत उसके लिए क


ला नहीं, एक ऐसा अस्थायी घर जहाँ दीवारें स्वर की होती हैं और छत टूटने का डर नहीं होता।

ईशान अवस्थी (तारे ज़मीन पर) के पास सब कुछ है माँ, पिता, भाई, कमरा, किताबें। फिर भी वह लगातार किसी दरवाज़े के बाहर खड़ा है। उसका अपराध केवल इतना है कि वह उस भाषा में नहीं सोचता जिसमें घर सोचता है। जब घर समझने की क्षमता खो देता है, तब बच्चा धीरे धीरे अदृश्य होने लगता है। उसकी चुप्पी विद्रोह नहीं, आत्म रक्षा है।

आदित्य कश्यप (जब वी मेट) कहीं से भाग नहीं रहा। वह बस उस जगह खड़ा नहीं रह पा रहा जहाँ उससे भावनात्मक उपस्थिति की अपेक्षा थी, सहभागिता की नहीं। आधुनिक मध्यवर्ग का यह नया बेघरपन है जहाँ व्यक्ति से कहा जाता है कि वह सब कुछ करे, बस महसूस न करे। और जब वह महसूस करना बंद कर देता है, तब घर उसे पहचानना छोड़ देता है।

पुरानी फिल्मों के पात्र बाहर थे। उनके पास समाज नहीं था। आज के पात्रों के पास समाज है, पर जगह नहीं। यह अंतर मामूली नहीं है। पहले बेघर आदमी जानता था कि वह कहाँ नहीं है। आज का बेघर आदमी यह भी नहीं जानता कि वह कहाँ होना चाहिए था।

रोहन (उड़ान) पिता के घर में रहता है, पर वहाँ भविष्य रखा है, वर्तमान नहीं। वहाँ आज साँस लेना अव्यवस्थित माना जाता है। यह वह घर है जहाँ सपनों को शौक समझा जाता है और इच्छाओं को कमजोरी। ऐसे घरों में आदमी ज़िंदा तो रहता है, पर जीवित नहीं।

वीरा (हाइवे) का पलायन अपराध नहीं, स्वीकार है। वह यह मान लेना है कि कुछ घर इतने सुरक्षित होते हैं कि वहाँ आत्मा के लिए जगह नहीं बचती। उसकी मुक्ति किसी रास्ते से नहीं, पहली बार मिली ख़ामोशी से शुरू होती है जहाँ कोई आदेश नहीं है।

इन सभी पात्रों को जोड़ने वाली चीज़ गरीबी नहीं, अकेलापन भी नहीं बल्कि ‘अस्वीकृत उपस्थिति’ है। वे वहाँ हैं, पर उनकी ज़रूरत नहीं है। यही सबसे कठोर बेघरपन है जहाँ आपके होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता।
शायद इसीलिए ये पात्र हमें असहज करते हैं। क्योंकि वे हमारे भीतर उस प्रश्न को छेड़ते हैं जिसे हम टालते रहे हैं क्या घर हमें जगह देता है, या हम बस उसे भरते हैं।

और कभी कभी, इसी प्रश्न के जवाब में, आदमी सिनेमा हॉल से निकलते हुए अपने ही घर की ओर थोड़ी झिझक के साथ लौटता है जैसे पहली बार देख रहा हो कि दरवाज़ा सच में खुला है या केवल आदत से खड़ा है।


– सुधींद्र दि. देशपांडे 

Comments

मकरंद said…
Well observed and nicely written, good one.
Sometimes movies are reflection of society and trends!

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