एक ऐसा खिलाड़ी, जो मैदान पर अपनी ही नसों से टकराया
कभी-कभी खेल में कोई ऐसा उतरता है, जो सिर्फ गेंद और बल्ले के लिए नहीं आता - वह आता है अपने वजूद को साबित करने। बाहर से चमकता हुआ, लेकिन भीतर एक जंग लड़ता हुआ।
विराट कोहली - इस नाम में क्रिकेट नहीं, एक तहज़ीब है। एक ऐसा व्यक्तित्व, जिसने समय की धूल में खड़े होकर अपनी छाया खुद बनाई।
कोहली को देखना, जैसे मैदान पर कोई रोशनी दौड़ रही हो। वो रन नहीं बनाते थे - वो रन छीनते थे, जैसे हर डॉट बॉल उनका
अपमान हो, और हर चौका एक जवाब।
वो बल्लेबाज़ नहीं थे - वो प्रतिरोध की शैली थे।
उनके स्ट्रोक्स में टेक्स्टबुक की परछाईं नहीं थी, उनमें वो धार थी, जो सिर्फ कच्ची सड़कों पर फिसलने वाले इरादों से बनती है।
जहाँ बाकी बल्लेबाज़ स्कोर बोर्ड देखते थे, कोहली बॉलर की आँखें देखते थे। जहाँ औरों को रन चाहिए होते थे, कोहली को खुद को साबित करना होता था - बार-बार, हर बार।
कप्तानी को उन्होंने कुर्सी नहीं, कुर्बानी समझा।
जब धोनी ने उन्हें टेस्ट की बागडोर दी, तो कोहली ने परंपरा नहीं निभाई, परंपरा तोड़ी। हर खिलाड़ी को मौका मिला अपनी भाषा में खेलने का, लेकिन कोहली ने पूरी टीम को एक ही लहजा सिखाया - हार मानना गुनाह है।
उनकी कप्तानी में भारत पहली बार ऑस्ट्रेलिया को उन्हीं की धरती पर हराता है। सीमाएं मिट जाती हैं, और विश्वास एक नई भाषा में बात करने लगता है।
विराट को खेलते हुए देखना, कभी तकनीक की पाठशाला नहीं रहा - वो एक भावनात्मक भाषा थी।
उनका हर शतक कोई आंकड़ा नहीं, बल्कि एक मानसिक संवाद था - अपने आलोचकों से, अपने अतीत से, और कभी-कभी खुद अपने डर से।
जब वो जर्सी की छाती पर हाथ मारते थे, तो लगता था जैसे कह रहे हों - मैं अभी ज़िंदा हूँ, और ये खेल मेरा है।
और अब...
जब विराट टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहने की ओर बढ़ते दिखते हैं, तो ये विदाई किसी करियर की नहीं लगती, बल्कि एक युग के उतरने जैसा लगता है।
वो क्रिकेटर जो मैदान पर नंगे जुनून के साथ उतरता था, अब धीरे-धीरे एक स्मृति में बदल रहा है - पर स्मृति भी वो, जो हर युवा बल्लेबाज़ के पैड पहनने से पहले उसके कानों में गूंजेगी।
वो चला नहीं जा रहा, वो बस रन-अप से हटकर अब इतिहास की स्लिप में खड़ा हो गया है - ताकि जब कोई नया विराट खेलने आए, तो एक दिशा दिखा सके।
- सुधींद्र दि. देशपांडे

Comments